Sunday, November 4, 2007

Parivertan

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

खाने की मेज़ पर एक बदती हुई गिनती,

पल भर के एहसास के लिए वो शक्स,

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

खुशबू का वो हिस्सः जो मेहेकता नही,

जिस्म का वो अंग जो धरकता नही,

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

भीर्ड़ में वो अकेला,

शतरंज का वो मोहरा,

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

मिटने का ना गम, क्टने का न रोष,

लाखों लाशों में जो जले,

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

कब्रों के नीचें हो जिसकी क्बर,

न कोई मुस्कराहट न कोई दर्द,

Na koi yaad na koi khabar,

में हूँ वो रौशनी जो कभी दिखती नही,

में हूँ वो अँधेरा जो कभी छ्टेगा नही,

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

सरक का व्हो पत्थर जो न राह दिखाए ….

में हूँ वो सपना जो कभी दिखेगा नही,

न कभी किसी के सपने का हिस्सा बनूँगा,

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

किताब का व्हो खाली पन्ना जीसका का कोई नाम नही,

वो आहट हूँ जिसकी कोई आवाज नही,

वो चाहत हूँ जो किसी की चाहत नहीं…

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

होली के रंग में रंगो बेरंग, हो जाऊंगा,

काला हूँ तुम साब को समां जाऊंगा,

आए मेरे मौला मुझे फना जब करे,

कुछ ऐसा कर के मेरी राख जो उरे,

किसी के झुटे बर्तनों पे जा लगे,

मरने के बाद भी उसको साफ कर जाऊंगा,

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बड़ाता हूँ……

में वो परिवेर्तन हूँ जो सिर्फ गिनती बरःता हूँ……

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